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Tuesday 13 July 2010

जनसेवकों की भूख

जनसेवा के नाम पर चुनाव जीतकर संसद-विधानसभाओं मे जाने वाले हमारे जनप्रतिनिधि लगता है सेवा की बजाय सुविधाओं को अधिक तवज्जो देने लगे हैं। सब कुछ सरकार के माथे, यानी जनता के पैसों पर! वेतन-भत्ते बढ़ाने की बातें हों या सुविधाओं में इजाफे की, सब जनप्रतिनिधि राजनीतिक विचारधारा की दीवारें गिराकर एक हो जाते हैं। हाल में वेतन-भत्ते बढ़ाने की सिफारिश कर चुकी संसदीय समिति ने अब सांसदों को थ्री जी मोबाइल सुविधा मुहैया करवाने की सिफारिश की है। एक तरफ ऎसे प्रतिनिधियों को चुनने वाली जनता है, जो महंगाई के बोझ से दबी जा रही है, तो दूसरी तरफ जनता के ऎसे नुमाइंदे हैं, जिनकी सुविधाओं की भूख खत्म नहीं हो रही है। संसद-विधानसभाओं में हो-हल्ले केअलावा कितना काम होता है या जनप्रतिनिधि जनता के कितने मुद्दे गंभीरता के साथ उठाते हैं, किसी से छिपा नहीं है। 
इस कड़वे सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि लोकतंत्र की मजबूत होती जड़ों के बीच जनप्रतिनिधियों की मतदाताओं के प्रति बेरूखी बढ़ती जा रही है। सुधार के प्रयास विफल हो रहे हैं। राजस्थान विधानसभा के पिछले सत्र में विधायकों के भोजन के ढाई लाख रूपए के बिल का भुगतान नहीं होने का मामला सामने आया है। विधायकों का कहना है कि खाने के पैसे वे पर्यटन मंत्री को दे चुके हैं, लेकिन जिस होटल से खाना मंगवाया गया, वहां के प्रबंधक ढाई लाख में से सिर्फ 75 हजार रूपए मिलने की बात कह रहे हैं। जब विधायकों ने पैसे दे दिए और होटल प्रबंधन को पैसे मिले नहीं, तो पैसे गए कहां? ये तो एकाध मामले हैं, जो उजागर हो जाते हैं, ऎसे कितने ही मामले विधानसभाओं में होते रहते हैं, लेकिन उनकी गूंज सुनाई नहीं पड़ती।
इसे हमारे लोकतंत्र की विडम्बना ही कह सकते हैं कि चुनाव जीतने के बाद जनप्रतिनिधियों पर जनता कोई कारगर अंकुश रखने में अपने को असहाय पाती है। जन आकांक्षाओं पर खरा न उतरने वाले जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार मतदाताओं के पास न होना भी जनप्रतिनिधियों को लापरवाह बनाने में मददगार है। सांसद-विधायक बेशक अपने वेतन-भत्ते-सुविधाएं बढ़ाएं, लेकिन जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारी तो समझें। उन वादों का तो ध्यान रखें, जो चुनाव प्रचार के दौरान वे जनता से करते हैं। राजनीतिक दलों का नेतृत्व भी शायद इन मुद्दों को लेकर गंभीर नहीं है। उनकी प्राथमिकताएं भी येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतने और सत्ता हासिल करने तक सीमित होकर रह गई है।
जनप्रतिनिधियों को यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस जनता का वे प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, उसकी स्थिति क्या है? उसकी मूलभूत आवश्यकताओं की पृर्ति हो रही है या नहीं? चुनाव से पहले अपने को जनता का सेवक करार देने वाले क्या वास्तव में जनसेवक की भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं? जब तक ऎसा नहीं होगा, तब तक राजनीति सेवा का माध्यम होने की बजाय सुख-सुविधाओं के दोहन का माध्यम बनकर रह जाएगी, जो लोकतंत्र के लिए शोभा की बात नहीं है।

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